आइये जानते है आज की रात “शरद पूर्णिमा” पर विशेष: डा० शशिशेखरस्वामी जी

डा० शशिशेखरस्वामी…
“श्वेत श्वेताम्बरो देवो
दशाश्व:श्वेत भूषण:
गदा हस्तो द्विबाहश्च
विधातव्यो विधुर्द्विज:॥”
भारतीय के रुप में, हम भाग्यवान है कि संस्कृत वांग्मय में चन्द्रमा के वर्णित स्वरुप का साक्षात् पर्वोत्सव के बहाने से कर पाते हैं।
इसी क्रम में, दिनांक 09-10-2022 की रात्रि को शरदपूर्णिमा का पावन पर्व अखिल आर्यावर्त में सोल्लास मनाया जाएगा।
शरदपूर्णिमा का ये पर्व चन्द्रमा से भारतीय लोक के लगाव का अनुपम प्रमाण है।शारदीय पूनम से प्रारम्भ ये श्रृंखला करवाचौथ,श्रावणी तीज, कजली, ऊबछठ जैसे अनेक पर्वों तक निरन्तर बढ़ेगी।
शहरों में तो ये पर्व मंदिरों और कुछ सनातनियों के घरों में क्षीर महोत्सव के नाम पर खीर प्रसादी मात्र के रुप में ही बचा हुआ रह गया है…पर ग्राम्य अंचल में अब भी ये लोकोत्सव है…. जहाँ शरद पूनौ की धवल चांदनी में बारीक सुई के महीन सूराख में धागा पिरो कर नेत्रज्योति की परीक्षा करते हुए, अखबार-किताबों की इबारतों में सूक्ष्माक्षर ढूंढ़ कर पढ़ते-पढ़ाते बहुतेरे मिल जाऐंगे। ये सभी उसी लोकरंजन की गौरवशाली परंपरा के अवशेष हैं, जिसे आचार्य चतुरसेन की कृतियों में ‘मदनोत्सव’ कहकर चित्रित किया गया है।
सोम,ग्लौ,उड्डपति,इन्दु,मृगांक,अब्ज,विधु,शुभांशु-जैसे चन्द्रमा के नाम कभी लोकमानस में सर्वज्ञात थे। आज ये केवल शब्दकोशों की सजावट बन रह गए हैं। नई पीढ़ी के लिए तो शशधर, शशांक, राकापति, शीतांशु, हिमकर सदृश्य-चन्द्रमा के नाम भी अनजाने हैं। माताओं की वह पीढ़ी भी विगत हुई जो तुतलाते बालवृन्द को थाली-परात में चन्द्र बिंब दिखला ‘चन्दा’ को ‘चन्दामामा’ कहना सिखलाती थी। …लोक से दिनोंदिन इस प्रकार से हो रहे चन्द्रमा से अलगाव ने ही जनसामान्य के मन की शान्ति का हरण कर लिया है।
जब जीवन में मन के कारक से ही दूर चले जा रहे हैं, तो ये तो होना तय ही है…सूत्र प्रसिद्ध है कि “चन्द्रमा मनसोजात: चक्षुसूर्योअजायत्”।
भारतीय ज्योतिष के मनीषियों-दैवज्ञों ने जन्मना पूर्वोदित राशि को जब ‘लग्न’ की संज्ञा दी, तो चन्द्र लग्न को भी समान महत्व देना स्मरण रखा…. क्योंकि मनुष्य जीव-जातक के सभी कार्य की जड़ में मन की प्रेरणा ही होती है। ज्ञात ही है कि कालपुरुष की आत्मा सूर्य व चन्द्रमा मन है……बहश्रुत शास्त्रवाक्य है-“कालात्मा दिनकर मनश्च हिमगु:।”
चन्द्रमा माता-स्त्री जातक का कारक है। कालपुरुष की कुंडली में सुखेश है। समाज में स्त्रियों के सम्मान बिना उल्लास संभव नहीं है। आचार्य वराहमिहिर द्वारा निष्पादित है-“कुजेन्दु हेतु: प्रतिमासामार्त्तवम्”…सो स्त्री जीवनचर्या में रजोवधि भी चन्द्रमा से जुड़ी है। ऐसे में आधुनिक जीवनशैली में उलझी नारियों के द्वारा भी चांद्र पर्वों-व्रत-उत्सवों से बढ़ती दूरी चिंता उत्पन्न करती है, क्योंकि ये ही वो अंतिम कड़ी है जो हमें प्यारे ‘चन्दामामा’ से जोड़े हुए है।
‘गजकेसरी’ में गुरु के साथ चन्द्रमा का समीकरण ढूंढ़ते…’केमद्रुम’ से भयाक्रांत घूमते…’अनफा-सुनफा’ में फंसे हुए जातकगण …जिस दिन से ‘मोती’ के लिए जन्मांग में चन्द्रमा के राश्यंश टटोलने की बजाए आकाश में नित्य उदित चन्द्रमा से स्वयं का खोया नाता पुन: पा लेंगे।विश्वास कीजिए…चन्द्रमा जीवन में सर्वस्व खोया सुख लौटा लाएगा। तो आइए!शरद पूर्णिमा के पावन-पुनीत पर्व के उपलक्ष्य में चन्द्रदेव की तेजोमय धवल चांदनी की अमृत वर्षा में स्वयं को जी भर भिगो लें, क्योंकि चन्द्रमा का प्रमुख बल उसका रश्मि-किरण बल है।
शरं ददाति इति शरदः ॥
शरद का अर्थ है कि जिस ऋतु में शर (बाण) प्राप्त हों वह शरद है। शर किसलिये? अपनी सुरक्षा के लिये। यही वह ऋतु है जब सरकण्डा मिलता है जिसका उपयोग बाण बनाने में किया जाता था। शर या इषु , मास इष ऋतु शरद ।
यही शर थे जिन्हें भूमि पर बिछाकर भीष्म को लेटाया गया था और एक गट्ठर सिर रखने के लिये भी दिया गया था।
बिना अच्छे आयुधों के युद्ध नहीं जीता जा सकता है। उस काल में धनुष-बाण ही सबसे अच्छा आयुध था, शत्रु को दूर से ही मारने के लिये इससे अच्छा कुछ नहीं था। शत्रु से दूरी बनाकर प्रहार करने से स्वयं को हानि होने की संभावना नहीं रहती है।
अमेरिका पहले वायुसेना, मिसाइल आदि का प्रयोग करता है बाद में अपने सैनिकों को ग्राउण्ड पर उतारता है।
इस प्रकार भारतीयों ने प्रथम सुरक्षा को वरीयता दी, इसके बाद ही भोजन का क्रम आता है।
शरद ऋतु की ही देन था आहार अर्थात् चावल ।
साठिया चावल और इसके साथ ही उगने वाला समा (सावां)। समा अर्थात् सम्वत्सर , एक वर्ष पूर्ण होने का काल । समा का एक अर्थ और भी है दिन-रात्रि के सम होने का काल अर्थात् विषुव । शरद में भी विषुव दिवस होता है।
शरद और सम्वत्सर एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुये।
पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।
(अथर्वसंहिता, काण्ड १९, सूक्त ६७)
एक वाप ने अपनी बेटी से पूछा था कि कौन सा फूल सबसे सुन्दर होता है तो बेटी ने उत्तर दिया था , वापू! कपास का फूल सबसे सुन्दर होता है।
मैत्रायणीयमानवगृह्यसूत्र के द्वितीय पुरुष के पन्द्रहवें खण्ड में ‘कर्त’ अर्थात् spindle का उल्लेख है।
कार्तिक मास कृत्तिका नक्षत्रयुक्त पूर्णमासी होने से होता है। कृत्तिका अर्थात् कर्तन करने वाली। कपास का कर्तन अर्थात् कपास काटना और फिर सूत कातना।
कर्तन शब्द कताई कार्य हेतु भी प्रयुक्त होता है। वेदमन्त्रों में कर्तवे क्रतु शब्दों को कपास कर्तन के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट होता है कि शतक्रतु उसे कह सकते हैं जिसने कपास की सौ फसलें उगा लीं। शरद में तैयार होने वाली कपास और जीवेम शरदः शतम्।
दीपावली में दीप प्रज्वलन हेतु जिस तेल और बाती(वर्तिका) की आवश्यकता है वह अभी प्राप्त होने वाली तिल और कपास की उपज से ही आती है। धान से खीलें मिलती हैं और ईख भी अभी आती है।
कार्तिक मास से कर्तन कार्य होने लगता है, जाड़ों के लिये रुई भरकर रजाई और गद्दों का तैयार किया जाना आरम्भ हो जाता है।
इन चार को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है.
इष और ऊर्ज शरद ऋतु के मास हैं .
ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .
रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होगी.
पोष … पौष मास पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से .
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वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात् शब्द की बहुधा आवृत्ति है ।
नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है .
हो भी या नहीं भी ।
शनैः शनैः विलुप्त होता भारत ।
टेसू और साँझी (झाँझी ) खेलने की लोक परम्परा भी आधुनिक जीवन शैली की भेंट चढ़ गई । संस्कृति मन्त्रालय या पुरातत्त्व विभाग तो कुछ करेगा नहीं , कदाचित UNESCO ही सुध ले ले |
यूँ तो अनेक प्रकार की कथायें प्रचलित हैं किन्तु सभी में अन्तिम बात यही है कि टेसू और झाँझी का विवाह नहीं हो पाया और दोनों की मृत्यु हो गई ।
शरद पूर्णिमा को दोनों के अधूरे विवाह के आयोजन की प्रथा रही है ।
ब्रज और बुंदेलखंड में खेला जाता है टेसू और झेंझी का खेल। जो पूरे क्वाँर के महीने में कुँवारे लड़के लड़कियों द्वारा तरैयाँ और सुअटा से प्रारंभ होकर, शरद पूर्णिमा पर टेसू और झेंझी के अधूरे विवाह के साथ समाप्त हो जाता है। पंद्रह दिन तरैयाँ नौ दिन नौरता और शेष सात दिन टेसू और झेंझी। टेसू और झेंझी को लेकर वे कुँवारे लड़के-लड़कियाँ अलग-अलग होकर टेसू-झेंझी से संबंधित गीत गाकर उनके विवाह के लिए अनाज और पैसा इकट्ठा करके, पूर्णिमा की रात में उनका विवाह रचाकर वर्षा ऋतु में वर्जित विवाहों का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं ।
पांच दिन की दूध हड़ताल
मालवांचल में शरद पूर्णिमा को #केलिया_पूनम के नाम से जाना जाता हैं….।
केलिया अर्थात मिट्टी का घड़ा ।
इस दिन मिट्टी के काले घड़े की पूजा की जाती हैं..।।
केलिया पूनम का यह त्योहार पांच दिनों तक(एकादशी से पूर्णिमा) तक चलता है …इन 5 दिनों में किसान/पशुपालक ना तो अपने पशुओं का दूध बेचता है नाही स्वयं उसका कोई उपयोग करता है… 5 दिनों तक केवल दूध का दही बनाकर घी निकाला जाता है…।
विशेष बात यह है की प्रथम दिन दही बनाने के लिए जामन के रूप में दही का उपयोग ना करते हुए दूध में चाँदी की #पाजेब और कुछ गेंहू के दाने डालने पर दही बन जाता है… इस दूध,दही और घी को सूर्य की रोशनी नही लगने दी जाती हैं …यह घी पूरे वर्ष भर धूप,दीप के काम आता हैं…।।
शरद पूर्णिमा की रात के लिया का पूजन किया जाता है|
…..इस कारण इसके लिये पूनम भी कहते है … शाम के दूध की खीर बनाई जाती है और पूर्णिमा की रात्रि में घर के ऊपर या खुले में रखकर उसका सेवन किया जाता है….।
हमारी परम्पराएं ,हमारे उत्तम स्वास्थ्य की कामना लिए होती हैं… इस समय का दूध अधिक पोष्टिक होता हैं… शायद इसी कारण इस समय को चुना गया… हमारी आने वाली पीढ़ी इसे भूल न जाये,इस कारण यह एक परम्परा बन गई…जिसको जानना समझना और उसका विधिवत पालन करना हमारा कर्तव्य हैं..।।
आपके अंचल में ऐसी कोई परम्परा हो तो जरूर बताएं…!!
✍🏻 डा० शशिशेखरस्वामी, मो०- 9450037924