आळवार माँ पराम्बा गोदाम्बा देवी
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वात्सल्य मूर्ति, अपार सुखदायिनी पराम्बा माँ गोदाजी की जयंती विशेष पर…..।
समय के साथ साथ गोदाजी बड़ी होने लगी।
विष्णुचित्त स्वामीजी गोदाजी को भगवान की कथायें श्रवण कराया करते थे , बतलाते है की जब भी विष्णुचित्त स्वामीजी भगवान की लीलाये का वर्णन गोदाजी को सुनाते थे, गोदाजी स्वयं को भगवान के साथ राधा रूप में देखती थी।
इसी तरह गोदाजी सयानी हुई, और उनका मन भगवान को पति रूप में वरण करने के लिये प्रगाढ़ होता जा रहा था।
हो भी क्यों न आखिर थी तो साक्षात् देवी भूदेवी की ही अवतार।
विष्णुचित्त स्वामीजी को गोदाजी के विवाह की चिंता घेरने लगी, यह देख गोदाजी ने पिताजी से कहा, आप चिंतित नहीं होईये, विवाह करेंगी तो सिर्फ भगवान कृष्ण से ही करेंगी, किसी सांसारिक व्यक्ति से नहीं।
विष्णुचित्त स्वामीजी जो स्वयं भगवान वटपत्रशायि की कृपा के पात्र थे, भगवद भक्ति आरधना , सेवा में तल्लीन रहते थे, बेटी की यह बात सुन खुश हुये।
माँ गोदाम्बाजी के इस प्रयोजन की प्राप्ति हेतु भगवान वटपत्रशायि से प्रार्थना करने लगे।
विष्णुचित्त स्वामीजी ने गोदाजी को सारे दिव्य देशो के पेरुमाळ की अवतरण कथायें, उनके स्वरुप वर्णन के साथ बतलाये , यह सब सुन गोदाजी भगवान रंगनाथ को ही पति रूप में वरण करने का प्रण ले लिये।
अपनी छोटी उम्र में ही गोदाजी का भगवत प्रेम और हठ पूर्वक रंगनाथ को अपना प्रियतम मान कर उन्ही से ब्याह रचाना, अपने आप में अभूतपूर्व था।
गोदाजी स्वयं आळ्वार थी और साथ ही भगवान रंगनाथ की नायकि भी थी।
गोदाजी को *पादवल्ल – नाचियार* के नाम से भी जानते है, क्योंकि उन्होंने तिरुप्पावै और नाच्चियार तिरुमोली, के पद गा गा कर भगवान को रिझाया था।
जहाँ शठकोप स्वामीजी अपने १००० वे प्रबंध में कहते है की जिन्हे भी मोक्ष या परम पद पाना हो वह मेरे साथ चले, वहां गोदाजी अपने पहले पद में ही सब को अपने साथ लेकर चलती है।
शठकोप आळ्वार और परकाल आळ्वार, भगवान को रिझाने स्वयं नायिका रूप धर, परांकुश नायिका और परकाल नायिका का रूप धर प्रबंध गाये थे, वहाँ देवी अण्डाल स्वयं नायिका ही है।
यह सब देखते हुए यही कह सकते है की सभी आळ्वारों में गोदाजी अग्रणी है, यहाँ तक की माँ लक्ष्मीजी से भी आगे है। पराशर भट्टर अपने रंगराज स्तवम् में कहते है
*”लक्ष्मीम विरहा रसिकमिवा राजहंसीम। छायामिवा अभ्युदयिनीम् अवन्तिम च तस्य।”*
श्रीमहालक्ष्मी एक सुन्दर हंस की तरह रंगनाथ रुपी जलाशय में खेल रही है, और भुदेवीजी उनकी छाया है।
यह मानते है की श्री देवीजी का पद ऊँचा है, पर यह भी अकाट्य सच है की, जीव सदा आराम करने के लिए छाया में ही रहना चाहता है।
श्री देवीजी जीव को परमपद प्राप्ति करवाने के लिए नारायण से जीव के अपराधों को क्षमा करवाकर परमपद दिलवाती है। जबकि भुदेवीजी का जिनपर अनुग्रह होता है उनके लिए नारायण से यही कहती है की, जीव ने कोई अपराध ही नहीं किया, इसे तो आपकी शरणागति मिलनी ही चाहिये। वेदांत देशिक स्वामीजी कहते है की, पराँम्बा माँ गोदाम्बाजी साक्षात क्षमा और करुणा की मूर्ति है।
माँ गोदाम्बाजी उच्च कुल के द्रविड़ ब्राह्मण के घर प्रकट हुई
पर सदा स्वयं को ग्वाल कुल की गोपिका रूप में ही मानती थी। गोदाजी विल्लिपुत्तुर गांव को गोकुल, गांव के सखा और सखियों को गोकुल के ग्वाल सखा – सखी और वटपत्रशायि भगवान के मंदिर को, नन्द भवन समझ भगवान की आरधना करती थी।
जिस तरह ब्रज में प्रेम मूर्ति श्री राधाजी , गोपिकाओं को संग ले कात्यायिनी व्रत का निर्वाह किया था, उसी प्रकार माँ गोदाम्बाजी ने भगवान का पति रूप में वरण करने, हठपूर्वक पाने के लिये मार्गशीर्ष मास में, जब भगवान सूर्य धनु राशि में संक्रमण करते है, तब धनुर्मास का व्रत करने का निश्चय किया।
जिस काल में श्री राधाजी का प्राकट्य हुआ उस काल में स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण अपने कृष्ण अवतार में इस धरा पर बिराजमान थे।
श्री राधाजी भगवान कृष्ण की प्रीती पाने अपनी सखियों को संग ले कर एक माह तक कात्यायिनी व्रत का पालन किया था।
जब भी निस्वार्थ प्रेम की परिभाषा बतलायी जाती है, श्री राधाजी का भगवान कृष्ण के साथ प्रेम को उल्लेखित किया जाता है।
कृष्ण राधा जैसे प्रेमी और उनका प्रेम अद्वितीय है।
ऐसे ही इस कलिकाल में, गोदाजी जो भक्ति भाव, समर्पण भाव से अर्चा विग्रह की पूजा कर भगवान को प्राप्त करने का सुलभ मार्ग प्रशस्त कर, संसारी जीव को बतलाने अवतरित हुई थी।
भगवान श्री रंगनाथजी को ही कृष्ण मान ,उन्हें ही वरण करने का मार्ग इस संसार को बतलाया।
मार्गशीर्ष मास के ३० दिन, रोज माँ गोदम्बाजी भगवान को स्वयं द्वारा भगवान के अवतारों उनकी लीलाओं के वर्णन में रचित प्रबंध पाशुर का एक पुष्प, भगवान कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करती हुयी और उनको पाने की तीव्र कामना में, द्रविड़ भाषा में बड़े ही आर्त भाव से एक एक पद गाकर सुनाती थी। (इन ३० पाशुरों की माला को *तिरुप्पावै* के नाम से जानते है)।
पूर्वाचार्यो के व्यख्यानो में इन ३० पाशुरों को ३० दिव्य देशों को इंगित करते हुये भी बतलाते है। कहते है भगवान श्री रंगनाथ प्रसन्न हो गरुडारुढ हो विल्लिपुत्तुर पधारे, स्वप्न में विष्णुचित्त स्वामीजी को आदेश दिया, गोदाजी को पूर्ण सम्मान के साथ वधु के शृंगार में सजाकर श्रीरंगम ले कर आओ, में उनसे विवाह रचाउंगा।
दूसरे दिन विष्णुचित्त स्वामीजी ने यह बात सब से कही, सब बड़े खुश थे, खबर राजा वल्लभदेव को पहुंचायी गयी, पर उसके पहले ही भगवान रंगनाथजी ने राजा वल्लभदेव को स्वप्न में आदेश दिया था, गोदाजी को श्रीरंगम लाने का इंतेजाम करने के लिये, साथ ही भगवान श्रीरंगनाथजी ने मंदिर के अर्चकों को भी आदेश दिया की, गोदाजी के भव्य स्वागत की तैयारी की जाये।
राजा वल्लभदेव जानते थे, विष्णुचित्त स्वामीजी अपने पास कुछ नहीं रखते, इस लिये राजा वल्लभदेव अपनी चतुरंगी सेना के साथ राजसी वैभव की तैयारी कर, विष्णुचित्त स्वामीजी और गोदाजी को श्रीरंगम ले जाने आ गये।
बतलाते है उस काल में विल्लिपुत्तुर से श्रीरंगम तक की राह केले के झाड़, आम के पतों की झालरों, फूलों की झालरों और जगह जगह तोरण से सजाये गये।
जगह जगह गोदाजी के स्वागत के लिए मंडप सजाये गये, माँ गोदम्बाजी को एक पालकी में बिठलाकर राजा वल्लभदेव और विष्णुचित्त स्वामीजी, चतुरंगी सेना के साथ, पुरे गांव के लोगों को साथ ले श्रीरंगम के लिये प्रस्थान किये।
राह में भी पूर्ण वैभव के साथ आगवानी की गयी. इस दिव्य विवाह के प्रत्यक्षदर्शी बनने, स्वयं का अहोभाग्य जान और लोग भी जुड़ते गये।
विष्णुचित्त स्वामीजी , वल्लभदेव राजा, गोदाजी और सभी के साथ निचुलापुरी (उरैयूर) पहुंचे। भगवान श्री रंगनाथजी को खबर पहुंचायी गयी, गोदाजी निचुलापुरी पहुंच गयी है। भगवान रंगनाथ ने अपने अर्चकों को आज्ञा दी, निचुलापुरी से रंग धाम तक रास्ता पुष्पो और तोरणों से सजा कर वैकुण्ठ सा बना दो, गोदाजी को दिव्य सम्मान के साथ ले आओ।
गोदाजी को श्रीरंगम मंदिर लाया गया, मंदिर पंहुचने पर अर्चकों द्वारा गोदाजी का, विष्णुचित्त स्वामीजी का, राजा वल्लभदेवजी का, और साथ आये सभी भागवतों का सम्मान सहित स्वागत किया गया।
सभी ने मंदिर में प्रवेश किया, कुछ साहित्य में वर्णित है, भगवान श्री रंगनाथजी के उत्सव विग्रह “नम्पेरुमाळ” से माँ गोदाम्बाजी का विवाह संस्कार संपन्न करवाया गया, पश्चात गोदाजी को श्री रंगनाथजी के दर्शन हेतु निज सन्निधि में प्रवेश करवाया गया, गोदाजी आज तक अपने पिताजी के मुख से भगवान रंगनाथ का वर्णन ही सुनती आ रही थी, आज स्वयं प्रत्यक्ष उनके दर्शन करने जा रही है, गोदाजी धीरे धीरे भगवान की सन्निधि की तरफ जा रही थी। भगवान के दर्शन कर, भगवान के चरण छुये, और देखते देखते सभी की आँखों से ओझल हो गयी।
भगवान रंगनाथ जी की दिव्य तिरुमेनी में समा गयी।
भगवान रंगनाथजी ने अर्चकों से कह कर सभी को बिदाई दिलवायी।
भट्ट पिरान से कहा आप विल्लिपुत्तुर पंहुच कर भगवान वटपत्रशायि की पहले की भांति सेवा कीजिये।
सभी लोग वहां से विदा हुये, विष्णुचित्त स्वामीजी राजा वल्लभदेव के साथ रवाना हुये, रास्ते में राजा वल्लभदेव को मदुराई छोड़ कर, विष्णुचित्त स्वामीजी विल्लिपुत्तुर पंहुचे।
इस प्रकरण के बाद विल्लिपुत्तुर का नाम श्रीविल्लिपुत्तूर कर दिया गया।
विष्णुचित्त स्वामीजी पहले की भांति वटपत्रशायि भगवान की पुळंगी सेवा में लग गये।
गोदम्बाजी के भगवान रंगनाथजी में सदेह विलीन हो जाने के बाद , विष्णुचित्त स्वामिजी अपनी कुटिया और नंदनवन की थोड़ी जगह पर माँ गोदाम्बाजी का मंदिर निर्मित करवाये, जिसमे गोदारंगमन्नार के साथ गरुड़जी भी एक ही आसन पर है, सिर्फ श्रीविल्लिपुत्तूर में ही भगवान श्री रंगनाथजी “श्री गोदारंगमन्नार कहलाये”।
माँ गोदाम्बाजी के मंदिर परिसर में ३ बावड़िया है, १) कन्नङी किन्नेरु याने शीशे की बावड़ी, इसे दर्पण तीर्थ भी कहते है, इस बावड़ी का पानी इतना साफ़ है, अपना प्रतिबिम्ब देख सकते है। कहते है माँ गोदाम्बाजी पेरिया आळवार द्वारा भगवान वटपत्रशायि के लिए बनायीं तुलसीमाला स्वयं पहन कर इस बावड़ी में स्वयं का प्रतिबिम्ब निहारती थी।
यह भी कहते है इस बावड़ी का पानी कभी सूखता नहीं, और ना ही इसमें कोई मछली और मेंढक है।
२) चन्दन किन्नेरु , इसे गरुड़ तीर्थ भी कहते है।
३) तिरुमादापल्ली किन्नेरु, इस बावड़ी का जल भगवान की प्रसाद गोष्ठी में काम में लिया जाता है. इसे वासुकि तीर्थ भी कहते है।
माँ गोदाम्बाजी के मंदिर और वटपत्रशायि के मंदिर के बीच , विष्णुचित्त स्वामीजी के तुलसीवन का वह स्थान जहाँ माँ गोदाम्बाजी प्रकट हुई थी, जो आज भी सुरक्षित है।
इस स्थान पर माँ गोदाम्बाजी के बाल स्वरुप का विग्रह स्थापित है,जो बहुत ही मनोहारी, दिव्य और अति सुन्दर है।
जहाँ तक दास को जानकारी के है, आज तक इस स्वरुप का कोई चित्र नहीं छपा है।
माँ गोदाम्बाजी का यह स्थान श्री संप्रदाय में विशिष्ट (प्रधान क्षेत्र) है।
सिर्फ संप्रदाय ही नहीं , भक्ति संप्रदाय में भी श्रीविल्लीपुत्तुर विशिष्ट (प्रधान क्षेत्र) है।
जिस तरह उत्तर भारत में तुलसीदासजी रचित रामचरित मानस घर घर में है, ऐसे ही श्रीवैष्णवों के घरो में, खास तौर पर दाक्षिणात्य श्रीवैष्णवों के घरों में, मंदिरों में, माँ गोदाम्बाजी द्वारा रचित ३० पाशुरों का सस्वर नित्य पठन होता है।
भगवान वेंगडम (तिरुमलेश, वेंकटनाथजी,)तिरुमला , के यहाँ धनुर्मास में सुप्रभातम की जगह तिरुप्पावै का पठन होता है।
माँ गोदाम्बाजी के मंदिर में , भगवान रङ्गमन्नार, माँ गोदाम्बाजी और गरुड़जी को एक ही सिंहासन पर खड़े हुये दर्शन होते है।
कुछ साहित्यकार, इन दर्शन को प्रणवाकार याने की, “ॐ” के दर्शन मानते है।
“अ” कार भगवान रङ्गमन्नार का प्रतिनिधित्व करता है।
“उ” कार पराम्बा माँ गोदाम्बाजी प्रतिनिधित्व करता है।
“म” कार गरुड़जी का प्रतिनिधित्व करता है।
संप्रदाय में
दक्षिणात्य कुछ आचर्य इन दर्शन को विशिष्ट अद्वैत सिद्धांत के तत्वत्रय के दर्शन मानते है।
भगवान रङ्गमन्नार “ईश्वर” है।
माँ गोदाम्बाजी”चित” है।
और गरुड़जी “अचित” है।
जय श्रीमन्नारायण।
क्रमशः …..३