श्रीकृष्ण और सुदामा की मैत्री वास्तव में अतुलनीय है:- डा० शशिशेखरस्वामी जी महाराज

राम किन्ही चाहही सोही सोही।
करें अन्यथा अस नहीं कोइ।।सुदामा के भाग्य में श्रीक्षय’ लिखा हुआ था,
श्रीकृष्ण ने वहां उन अक्षरों को उलटकर ‘यक्षश्री’
श्रीकृष्ण और सुदामा की मैत्री वास्तव में अतुलनीय है। श्रीकृष्ण सुदामा के ही तुल्य होते, तो कुछ महत्त्व नहीं था; पर वे तो राजराजेश्वर द्वारिकानाथ थे। उन्होंने निर्धन, दीन सुदामा के चरण धोए, उसका चरणामृत लिया, उसे महलों में छिड़का, दीन को गले से लगाया। यह है महत्ता उनके प्रेम और स्नेह की।
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौं माने को?
ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये।।
भगवान ने सुदामा के द्वारा लाए हुए चिउड़ों का बड़ी रुचि के साथ भोग लगाया और सुदामा से कहा–’आपके द्वारा लाया हुआ चिउड़ों का यह उपहार मुझको अत्यन्त प्रसन्नता देने वाला है। ये चिउड़े मुझको और मेरे साथ ही समस्त विश्व को तृप्त कर देंगे।’
सुदामा ने श्रीकृष्ण से प्रेम किया तो श्रीकृष्ण ने उन्हें द्वारिकानाथ बना दिया। उन्हें अपने सिंहासन पर बिठाया और स्वयं नीचे ही नहीं वरन् सुदामा के चरणों में बैठे। श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी चावल खाकर सुदामा को द्वारिका के तुल्य सम्पत्ति प्रदान की।
सुदामाजी द्वारिका से लौटकर अपने गांव आए तो देखा कि यहां तो किसी राजा ने सुन्दर नगर बसा दिया है, जिसकी रचना और उसका ऐश्वर्य द्वारिका के समान है। लेकिन इतने अपार वैभव को प्राप्त कर भी सुदामाजी उसके मोह और भोगों में आसक्त नहीं हुए।
सुदामा की इतनी सम्पत्ति देखकर यमराजजी से रहा न गया। वे परमात्मा को कायदे-कानून बताने के लिए सब बही-चौपड़े लेकर द्वारिका पहुंचे और भगवान के चरणों में वंदन करके बोले–’महाराज! अब शायद मेरी जरुरत नहीं है। प्रत्येक को उसके कर्मानुसार फल प्रदान करने का नियम तो आपने ही तोड़ दिया है। अब कायदा-कानून कुछ रहा नहीं।’
भगवान ने पूछा–’क्यों, क्या हुआ यमराजजी!’ यमराजजी ने कहा–’भगवन्! आप ही जब नियम भंग करते हैं तो फिर जगत का क्या होगा? आपको कौन रोक सकता है? आप परमेश्वर हैं, किन्तु किसी साधारण जीव को यदि इतनी सम्पत्ति प्रदान करेंगे तो कर्म की मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जाएगी।’
श्रीकृष्ण ने पूछा–’ क्या आप सुदामा की बात कर रहे हैं?’ यमराज ने कहा–’हां महाराज! इस सुदामा ने ऐसा कोई बड़ा पुण्य नहीं किया है। इस ब्राह्मण के भाग्य में तो दरिद्रता का ही योग लिखा हुआ है और आपने इसको इतना अधिक दे दिया! इतनी सम्पत्ति तो इन्द्र के दरबार में भी नहीं है। आप उदार हैं, किन्तु इससे कर्म की मर्यादा लुप्त होती है।’ सुदामा के ऐश्वर्य को देखकर यमराज को भी ईर्ष्या हुई, इसलिए भगवान को कर्म की मर्यादा समझाने लगे।
श्रीकृष्ण ने कहा–’यमराजजी! आप अपना हिसाब-किताब ठीक नहीं रखते। सुदामा के पुण्य का क्या बखान करुं! सुदामा ने मुझे एक मुट्ठी चावल खिलाए। जो मुझे खिलाता है उसे सम्पूर्ण विश्व को भोजन कराने का फल मिलता है।’
भगवान ने यमराज के बही-चौपड़े खोलकर देखे और जहां सुदामा के भाग्ययोग में ‘श्रीक्षय’ (सम्पत्ति का नाश) लिखा हुआ था, श्रीकृष्ण ने वहां उन अक्षरों को उलटकर ‘यक्षश्री’ (कुबेर की सम्पत्ति) लिख दिया। इससे स्पष्ट है कि भगवान के दरबार में ‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई’ है।
जो भगवान श्रीकृष्ण को खुश करते हैं, उनसे सारा संसार खुश रहता है।
।। जय श्री कृष्णा।।
……डा० शशिशेखरस्वामी जी