October 3, 2024

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वत्स गोत्र उत्पत्ति कथा

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डा० शशिशेखरस्वामी जी महाराज

एक बार स्वर्ग की देव सभा में दुर्वासा ऋषि उपमन्यु ऋषि के साथ विवाद करते-करते क्रोधवश सामवेद गान करते हुए विस्वर गान (Out of Tune) गाने लगे| इसपर सरस्वती देवी हँस पड़ी| फिर क्या था; दुर्वासा ऋषि उनपर बरस पड़े और शाप दे डाला – ‘दुर्वुद्धे ! दुर्विद्ग्धे ! पापिनि ! जा, अपनी करनी का फल भोग, मर्त्यलोक में पतित होकर बस| स्वर्ग में तेरा स्थान नहीं|
इतना सुनकर सरस्वती देवी विलाप करने लगी| इसपर पितामह व्रह्मा ने दुर्वासा की बड़ी भर्त्सना की|
अनंतर अपनी मानसपुत्री सरस्वती पर द्रवीभूत होकर उससे कहा – ‘जा बेटी’ ! मर्त्यलोक में धैर्य धर कर जा, तेरी सखी सावित्री भी तेरे साथ वहाँ जायेगी| पुत्रमुख दर्शन तक ही तेरा यह शाप रहेगा, तदन्तर तू यहाँ वापस लौट आयेगी|
शापवश सरस्वती मर्त्यलोक में हिरण्यवाह नदी के पश्चिमी किनारे पर स्वर्ग से जा उतरी|
हिरण्यवाह को शोण नद भी कहते है जो आज कल सोन नदी के नाम से विख्यात हैं|
वहाँ की रमणीयता से मुग्ध हो वहीं पर्णकुटी बनाकर सावित्री के साथ रहने लगी|
इस प्रकार कुछ वर्ष व्यतीत हुए|
एक दिन कोलाहल सुन दोनों ने कुटिया के बाहर आकर देखा|
हजार सैनिकों के साथ एक अश्वारोही युवक उधर से गुजर रहा था|
सरस्वती के सौंदर्य पर वह राजकुमार मुग्ध हो गया और यही हालत सरस्वती की भी थी|
वह राजकुमार और कोई नहीं, महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या का पुत्र राजकुमार दधीच था| च्यवनाश्रम शोण नदी के पश्चिमी तट पर दो कोश दूर था| दोनों के निरंतर मिलन स्वरूप प्रेमाग्नि इतनी प्रवल हुई कि दोनों ने गांधर्व विवाह कर लिया और पति-पत्नी रूप जीवन-यापन करने लगे|
जब घनिष्ठता और बढ़ी तो सरस्वती ने अपना परिचय दिया| सरस्वती एक वर्ष से ज्यादा दिन तक साथ रही| फलतः उसने एक पुत्र-रत्न जना| पुत्रमुखदर्शनोपरांत सरस्वती अपने पुत्र को सर्वगुणसंपन्नता का वरदान देकर स्वर्ग वापस लौट गयी| पत्नी वियोगाग्नि-दग्ध राजकुमार दधीचि ने वैराग्य धारण कर लिया| अपने पुत्र को स्वभ्राता-पत्नि अक्षमाला को पालन पोषण के लिए सौंप कर युवावस्था में ही तपश्चर्या के लिए च्यवन कानन में प्रवेश कर गए|
अक्षमाला भी गर्भवती थी| उसे भी एक पुत्र हुआ| सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा “वत्स”| अक्षमाला ने अपना दूध पिलाकर दोनों बालकों का पुत्रवत पालन पोषण किया| एक ही माता के दुग्धपान से दोनों में सहोदर भ्रातृवत सम्बन्ध हो गया|
अपनी माता सरस्वती देवी के वरदान से सारस्वत सभी विद्याओं में निष्णात हो गए और इतनी क्षमता प्राप्त कर ली कि अपना पूरा ज्ञान, कौशल और सारी विद्याएँ अपने भाई वत्स के अंदर अंतर्निहित कर दी| परिणामस्वरूप वत्स भी सरस्वती देवी प्रदत्त सारी विद्याओं में निष्णात हो गए|
वत्स में सर्व विद्या अर्पण कर च्यावानाश्रम के पास ‘प्रीतिकूट’ नामक ग्राम में उन्हें बसाकर सारस्वत भी अपने पिता का अनुशरण कर च्यवन कानन में तपस्या करने चले गए|
युगोपरांत कलियुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने ‘वात्स्यायन’ उपाधि भी रखी|
वात्स्यायन ऋषि रचित ‘कामसूत्र’ जग प्रसिद्ध है|
वत्स वंश में बड़े-बड़े धीर-विज्ञ गृहमुनि जन्मे जो असाधारण विद्वता से पूर्ण थे|
ये किसी और ब्राह्मण की पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करते थे (विवर्जितः जनपंक्त्यः)|
अपना भोजन स्वयं पकाते थे (स्वयंपाकी)|
दान नहीं लेते थे, याचना नहीं करते थे (विधूताध्येषनाः)|
स्पष्टवादी तथा निर्भीक शास्त्रीय व्यवस्था देने के अधिकारी थे| कपट-कुटिलता, शेखी बघारना, छल-छद्म और डींग हांकने को वे निष्क्रिय पापाचार की श्रेणी में गिनते थे| निःष्णात विद्वान, कवि, वाग्मी और नृत्यगीतवाद्य आदि सभी ललित कलाओं में निपुण थे|
कालक्रमेण कलियुग के आने पर वत्स-कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए जिनकी चरणकमलवंदना तत्कालीन गुप्तवंशीय नृपगण करते नहीं अघाते थे :-
“बभूव वात्स्यायन वंश सम्भ्वोद्विजो जगद्गीतगुणोग्रणी सताम|
अनेक गुप्ताचित पादपंकजः कुबेरनामांश इवस्वयंबभूवः|

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